Tuesday, February 1, 2011

घोटाला वर्णमाला

क्यों ? घुटलू ...  ए, बी, सी, डी..याद है ? हाँ... मास्साब... अरे...! तुझ जैसे गधे... को ए, बी,सी, डी...याद कैसे  हो गई? अरे... मास्साब... अब तो  किसी को भी याद  हो सकती है ! क्यों ? ......मास्साब... देश में रोज एक घोटाला होता है!.. है !.. न !...और अंग्रेजी वर्णमाला में  २६ अक्षर है, अगर वो भी हिंदी वर्णमाला की तरह ५२ होते... तो.. भी .. कम पड़ जाते ! ...फिर  याद रखने की क्या जरूरत ! ... ठीक है.  सुनाओ ?.. घुटलू ने बोलना शुरू किया.  मास्साब  "ए" से आदर्श सोसायटी घोटाला, "बी" से बोफोर्स घोटाला, "सी" से चारा घोटाला, "डी" से डी डी ए/ दिनेश डालमिया स्टॉक घोटाला, "इ" से एनरोन घोटाला, "ऍफ़" से फर्जी पासपोर्ट घोटाला, "ग(जी)" से गुलाबी चना घोटाला, "एच" से हथियार/ हवाला/हसन अली खान टेक्स घोटाला. बस.. बस... नहीं मास्साब. आज तो मै पूरी ए, बी,सी, डी.. सुनाके ही रहूँगा. ठीक है... ठीक है.. "आई" से आई पी एल घोटाला, "जे" से जगुआर/ जीप  घोटाला, "के" से कॉमन वेअल्थ गेम्स /केतन पारीख सिक्यूरिटी घोटाला ,"एल" से लोटरी / एल आई सी घोटाला, "एम्" से मनरेगा/ मधु कोड़ा माइन घोटाला, "एन" से नागरवाला घोटाला, "ओ" से आयल/ ओरिसा माइन घोटाला, "पी" से पनडुब्बी/ पंजाब सिटी सेण्टर घोटाला, "क्यू" से कोटा परमिट घोटाला, "आर" से राशन/ राईस एक्सपोर्ट घोटाला, "एस" सत्यम/शेयर/सागौन प्लान्टेशन घोटाला, "टी" से तेलगी/ ताबूत /टेलिकॉम/ टूजी स्पेक्ट्रम घोटाला, "यू" से यूरिया/ यू टी आए. घोटाला, "वी" से वीसा (कबूतरबाज़ी) घोटाला, "डब्लू" वेपन/ व्हीट घोटाला, "एक्स " एक्सेस  बैंक घोटाला, "वाय" से यार्न  घोटाला, "जेड" से  ज़मीन घोटाला... आदि. शाब्बास... घुटलू. तुमने  तो कमाल कर दिया. आज क्लास को मै नहीं तुम पढ़ाओगे. तुमने तो "ग" गणेश का साबित कर दिया. 
   मास्साब, पहले, बच्चो को स्कूल में पढाने पूर्व  शुभारम्भ  करने के लिए  "ग" गणेश का सिखाया जाता था. हमारे भारत वर्ष में भगवान गणेश को बुद्धि का दाता माना जाता है, पर शायद  कुछ ज्यादा समझदार नेताओं  द्वारा पुस्तकों में  "ग" गणेश का, के स्थान पर "ग" गधे का लाया गया और पढाया जाने लगा. उन्हें वोट की खातिर गणेश जी रास नहीं आये भले ही हमारे सम्माननीय नेता जी चुनाव में नाम दाखिल करने से पहले गणेश वंदना करके ही निकलते  हों! पर  पता नहीं उन्हें कैसे अक्ल आई! कि, "ग" गधे का, के स्थान पर "ग" गमले का, का बीजारोपण किया गया. फिर क्या था! वह गमला रुपी पौधा वृक्ष में तब्दील हो गया. उससे निकले फल और बीज  इतने पौष्टिक निकले कि नई पैदावार ने गुल खिलाना शुरू किया, जिसने शिष्टाचार पूर्वक भ्रष्टाचार करना शुरू कर दिया. सब कुछ बिकता है... ! की मानसिकता ने अपने आचार-विचार संस्कृति को मात्र किताबों तक और मूल्यों पर आधारित शिक्षा को भाषणों तक ही सीमित कर दिया है!. पैसा कमाने की अंधी  दौड़ ने जैसे नैतिकता, ईमानदारी को एक प्रतीक चिन्ह सा बना दिया है. आज आत्मीयता, व्यावहारिकता में और सेवा, व्यावसायिकता में बदल गई है. बेईमानी का काम ईमानदारी से होता है. सेवा शुल्क अदा कीजिये... और एट होम सर्विस पाईये..., की नई घुटी  ने शिष्टता पूर्वक छोटी- छोटी हेरा-फेरी से लेकर बड़े घपलो और सुपर घोटालो तक का सफ़र बड़ी आसानी से पूरा किया है!   हिंदी वर्णमाला में "ग " के बाद "घ" आता है.  मास्साब अब तो 'घ ' का जमाना आ गया है. "घ" ऐसा घुटा है कि आज गाँव- गाँव में बच्चों कि जुबान पर "घ' बोला कि तपाक से जवाब मिलाता है, 'घ" से  घो...टा...ला...!
     मास्साब..जब से घोटालेबाज  शीला की जवानी का उपयोग कर और मुन्नी  को बदनाम करके अपने घोटालो  को अंजाम देने लगे,तब से नित नए घोटालो की बहार आने लगी है फिर  नैतिकशिक्षा कि क्या जरूरत ? घोटाला मतलब घोट.. डाला...घोटालेबाजों ने "घ" के कणों को पीस-पीस कर इतना महीन बना लिया और उसकी घुटी  का ऐसा घूँट बनाकर पिया है  कि  दुनिया की ऐसी कोई फार्मास्युटिकल कंपनी नहीं है,जिसके पास इसका एंटीडोट हो, क्योंकि हमाम में सब वस्त्रहीन है. पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन में अमृत के आलावा ऐसे कई रत्न निकले जिससे  सभी को लाभ पहुंचा. आज स्वर्ग में बैठे देवता और पाताल में बैठे दानव भी यह सोचने को मजबूर है कि काश!.. अमृत मंथन में घोटाले जैसा अप्रतिम रत्न पहले क्यों नहीं निकला ! हमारे सम्माननीय  घोटालेबाज  इतने महान है, जिन्होंने नीलकंठ को भी पीछे छोड़ दिया और विष से भी विषारी घोटाले जैसा रत्न अपने दिमाग से निकाला! उन्हें समुद्र मंथन कि क्या जरूरत ! वे तो हमेशा मस्तिष्क मंथन में लगे रहते  है कि कब कौन सा घोटाला किया जाय !यह तो सभी जानते है कि भ्रष्टाचार कि गंगा गंगोत्री से निकलती है और अंत में अनैतिकता  के समुद्र में मिलकर एक हो जाती है. हमारे आदरणीय... जब तक घोटाले करते है, तब तक उनका हाजमा तंदरुस्त रहता है, जैसे ही उनका घोटाला उजागर होता है, उनका हाजमा ख़राब हो जाता है और  उनके अस्पताल में भर्ती होने की नौबत आ जाती है. आज घोटालेबाजों कि समाज में खासी इज्ज़त है. एक तो वो पकडे नहीं जाते, और यदि पकडे भी गए तो उन्हें जेल में वी.आई.पी.ट्रीटमेंट मिलता है. इतना सम्मान तो अच्छा काम  करने पर भी नहीं मिलता ! आज देश पर न्योछावर होने पर राजनीति कि जाती है और  उनका परिवार भी संकट में जीता है,परन्तु घोटाला करने पर मान सम्मान इतना बढ़ जाता है  कि आपको सारी दुनिया एक ही झटके में जानने लगाती है. स्मारक बनाये जाते है! इतना ही नहीं..लम्बे समय बाद जब घोटालेबाजो को क्लीन चिट  मिल जाती है, तो उनका आत्मसम्मान दुगना हो जाता है और वे दूसरा घोटाला करने की तैयारी करने में लग जाते  है! जैसे बूँद बूँद से घड़ा भरता है और घूँट-घूँट से प्यास बुझती है, वैसे ही घट-घट में घोटाले हो रहे है.
मास्साब,मैंने     पतंगबाज,तलवारबाज,कबूतरबाज,दगाबाज,निशानेबाज,धोखेबाज,सौदेबाज,झान्सेबाज,सट्टेबाज,जाम्बाज़, कलाबाज़,   और घोटालेबाज सुने है. लेकिन,  यह निश्चय किया है कि मै, तो बड़ा होके एक प्रतिष्ठित घोटालेबाज बनूँगा और घोटाला यूनिवर्सिटी खोलूँगा. घोटाले का मैनेजमेंट फंडा शास्त्रोक्त रूप से दूंगा, ताकि नए-नए घोटालेबाज तैयार कर सकूं.वैसे भी आजकल अख़बारों में, न्यूज़ में और लोगो में घोटालों की ही चर्चा होती है.मेरे विचार में सरकार ने घोटाले को कानूनी रूप से मंजूरी दे देनी चाहिए ! क्योंकि जब कानून बनाने वालों से लेकर कानून लागू करने वाले सभी उसमे शामिल हो तो फिर देर किस बात की....! देश के एक प्रमुख उद्योगपति ने सार्वजानिक रूप से कहा कि उनसे रिश्वत मांगी गई, पर... इस देश के हर नागरिक को कहीं न कही रिश्वत देना पड़ती है, पर वो बोल नहीं सकता क्योंकि वह गूंगा है!                                                                                                          क्यों मास्साब!आपकी शिक्षा और ए,बी,सी,डी दोनों काम की नहीं है!मुझे तो घोटालेवाली ए, बी,सी, डी..आती है . शिक्षक के माथे पर पसीना था. चरित्र निर्माण और राष्ट्र निर्माण के पुजारी हतप्रभ थे !सोच रहे थे.. हम कहाँ से कहाँ जा रहे है....? घोटालेबाज तो आदर्शवादी होते है, उनकी पूँछ कुत्ते की तरह और तासीर जलेबी  की तरह सीधी होती है! क्यूँ... मास्साब... अब तो समझ गए न ? मास्साब.. ! यह है मेरी... घोटाले कि वर्णमाला... अच्छा....   अब बहुत अच्छी  तरह समझ में  आ गया.. कि तुम्हारा नाम घुटलू... क्यों  रखा है ! 
नितिन देसाई "पर्यावरण मित्र"                                      

Thursday, October 21, 2010

घुनानंद की औषधि !

मुझे, विगत वर्ष पितृपक्ष में बरसी कार्यक्रम हेतु जाना था. मै तैयार होकर रेलवे स्टेशन पहुँचा स्टेशन पर गाड़ी की प्रतीक्षा कर ही रहा था कि एकाएक मेरे दो पर्यावरण मित्र श्री विजय शर्मा और श्री सुनील यादव जी दिखाई पड़े.मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई कि चलो.. मित्रों के साथ यात्रा का मजा अलग ही होगा. मैंने पूछा कहाँ का कार्यक्रम है?उन्होंने बताया चारों ओर प्रदूषण बढ़ रहा है इसलिए पर्यावरण परिसर, भोपाल, एक ज्ञापन देने जा रहे है. मैंने  सोचा चलो इसी तरह समाज में धीरे-धीरे जाग्रति आएगी.वैसे भी आजकल सभी ज्ञात प्रदूषणों के आलावा टी.वी. चैनल्स पर अधिकांश सीरियल्स/ धारावाहिकों द्वारा अत्यधिक मानसिक प्रदूषण फैलाया जा रहा है और उस पर किसी का कोई अंकुश नहीं है.”सी” “रियल्स” अर्थात सच्चाई दिखाना. वे मुद्दा रियल उठाते है और काल्पनिक रूप से आर्टिफिशियल जामा पहना कर इतना लम्बा खीचते है कि उससे सुगन्धित और प्रफुल्लित वातावरण होने के बजाय प्रदूषित और बदबूदार वातावरण निर्मित हो रहा है. एक बार भीड़ होने पर रेलवे वाले अतिरिक्त कोच लगाने से परहेज कर सकते है पर आजकल सीरियल्स के अधिकतर निर्माता निर्देशक उसकी कड़ियाँ ऐसे बढ़ाते है जैसे कि हनुमान जी की पूँछ हो. इस पर सुनील जी कुछ कहने ही वाले थे कि रेल प्लेटफ़ॉर्म पर आ गई. हम लोग कोच में बैठ गए. रेल अपनी गति से चल रही थी.कुछ लोग बैठे-बैठे ऊँघ रहे थे,कुछ पेपर/मैगज़ीन पढ़ रहे थे,कुछ मूंगफली/चिप्स खा रहे थे… इतने में इलायची वाली चाय….गरम चाय की आवाज आयी तो दूसरे तरफ से खीरा लो खीरा.. ताज़ा खीरा की आवाज़ आयी.इन सब के बीच बाजूवाले डिब्बे से बड़ा ही मधुर स्वर सुनाई दे रहा था परन्तु दूरी के कारण बोल स्पष्ट सुनाई नहीं दे रहे थे. हम लोग अपनी बातों में व्यस्त थे कि देखा गाने वाली टोली जिसमे १३-१४ साल के दो लडके और एक लड़की,जो, मैले कुचैले से कपडे पहने हुए थे, ने डिब्बे में प्रवेश किया और लड़की ने गाना चालू किया. एक लडके के हाथ में रंग के डिब्बे से बनाया हुआ गिटार था, तो दूसरे के हाथ में एस्बेस्टस की टूटी हुई चिप्पियाँ थी, जिसे उसने अपने दोनों हाथों में बड़ी खूबसूरती से फंसा रखा था, बजा रहा था.पास आने पर गाना एकदम साफ़ सुनाई दिया. गाने के बोल थे ” जब भी जी चाहे नई दुनिया बसा लेते है लोग, एक चहरे पर कई चहरे लगा लेते है लोग…. ” मैंने विजय से कहा गाना और उसका प्रस्तुतीकरण तो समाज के मुखौटों पर तमाचा है. विजय भाई आपने भी तो अपने व्यंग में कुछ इसी तरह से कहा है ज़रा सुनाइये, सफ़र भी कट जाएगा और मनोरंजन भी. इस पर विजय भाई ने बताना शुरू किया.. वर्तमान समय,समाज में दो तरह के मुखौटे लगाये हुए लोगो का है. एक समाज की व्यवस्था से संघर्ष कर रहा है तो दूसरा अपने आप को समाज में स्थापित करने हेतु अवैध तरीका अपनाकर घुन की तरह लगा हुआ है. उसे न समाज से मतलब है न संस्था से और देश से तो बिलकुल नहीं.वह आत्मस्तुति में लगा है. वह छपवास और बकवास में लिप्त है और उस होड़ में अपने को बनाये रखने हेतु कोई कसर नहीं छोड़ता.उनके दांत हाथी के होते है जो खाने के अलग और दिखाने के अलग. जो भी कल्याणकारी योजनायें आती है उसका ज्यादातर लाभ ये लोग लेकर सारा क्रेडिट खुद ले लेते है. ऐसे लोग दूधों नहाये और पूतों फले इस हेतु स्वामी घुनानंद के मस्तिष्क में एक युक्ति आई, क्यों न ऐसी दिव्य औषधि बनाई जाय जिससे सभी का कल्याण हो सके सभी उसे पाकर धन्य महसूस करे. इस विचार धारा से प्रेरित होकर स्वामी घुनानंद ने विचार किया किया कि कोई ऐसी तेल रूप औषधि बनाई जाय जिससे अधिक से अधिक लाभ मिल सके. जिसके लेपन से मानसिक और शारीरिक और पंगुता जैसी सारी व्याधियां दूर हो जाय तथा लोलुपता वाली ताज़गी का अहसास हो. दुनिया भर के सारे कार्य आसानी से हो जाय तथा सांप भी मर जाय और लाठी भी न टूटे. इसी मंथन में स्वामी घुनानंद अपने अनुसन्धान में लग गए. इस हेतु उन्होंने संसार भर के सारे सरकारी, गैर सरकारी कार्यालयों,ब्लाक, तहसीलों, पंचायतों, विद्यालयों, शिक्षा के मंदिरों,मंत्रालयों,कारखानों,खेतों,राजनैतिक ईकाईयो, पुलिस, उद्योग, कर वसूली विभागों, सहकारी संस्थाओं, वित्तीय/गैर वित्तीय संस्थाओं.. आदि से होते हुए जंगलों में घोर तपस्या कर के उत्तम गुणवत्ता वाली जड़ी बूटियों जिसमे महिमामंडन, रिश्वतखोरी,गुणगान,चमचागिरी,नियमों विरुद्ध कार्य,सत्य का गलाघोटना, लेटलतीफी,अवसरवादिता,घर पहुंच सेवा… इत्यादी मिलाकर इनके सत्व को बड़े जतन से धैर्यपूर्वक निकालकर एक तरल पदार्थ का निर्माण किया जिसका नाम उन्होंने ” घुनानंद का  तेल ” रखा.अब उसको बाज़ार में लाकर बिक्री करना था तो आचार्य घुनानंद ने मुहूर्त के बारे में सोचना शुरू किया. इस हेतु उन्होंने बड़े बड़े पंडितों, ज्योतिषाचार्यों, टी वी पर आने वाले भविष्य वेधत्ताओं आदि से संपर्क किया और जनमानस में लाने हेतु उत्कृष्ट मुहूर्त का चयन किया. घुनानंद जी ने विपणन कंपनियों से संपर्क करके उसका विज्ञापन तैयार किया जिसमे सभी विवादस्पद कलाकारों ने बिना किसी हिचक के और सार्वजनिक हित में उसका विज्ञापन दिया और बड़े जोर से कहा कि मूल्यवान,चमत्कारी,गुणकारी,असरकारी और ९८% लाभकारी सफलता दिलाने वाला घुनानंद का  तेल औषधि रूप है और इसे प्रत्येक परिवार का मुखिया, स्त्री, पुरुष यहाँ तक की बच्चे विशेष दर पर प्राप्त कर सकते है. स्वामी जी ने  बड़े जातां से इसे पाउच से लेकर बड़ी पैकिंग में उपलब्ध कराया है और इसकी विश्वसनीयता हेतु इस पर पर्ची चिपकाई है जिसका विवरण इस प्रकार है.
स्वामी घुनानंद जी महाराज,
घुनानंद मठ, सरकारी कुआ,
बाई का बगीचा, चिकना घड़ा,
हल्का प्रदेश.
स्वामी जी का आव्हान था अब तो समाज को बिलकुल मत छोडो और अपना नाम सार्थक करो तेल की तरह चिपको..घुनानंद की औषधि अपनाओ, सारी व्याधियां दूर भगाओ.घुनानंद जिंदाबाद.घुनानंद जिंदाबाद.
वाह! विजय भाई, अपने तो कमाल कर दिया पर अब ये बताओ कि मुझे यह औषधि कब मिलेगी ? सुनील जी ने कहा! इतने में एक स्टेशन आया और हम नीचे उतरे. गाने वाली टोली भी उतर कर गाने लगी“एक दिन बिक जायेगा माटी के मोल, जग में रह जायेंगे प्यारे तेरे बोल……” तथा अगले डिब्बे की ओर कूच कर गई और मस्तिष्क में एक विचार छोड़ गई.
मूल विचार श्री विजय शर्मा,”पर्यावरण मित्र” प्रस्तुतीकरण नितिन देसाई.

Wednesday, September 8, 2010

शिक्षक सम्मान की हकीकत






पांच सितम्बर को शिक्षक दिवस था. हम सभी जानते है कि भारत के दूसरे राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी के जन्मदिवस को हम शिक्षक दिवस के रूप में  मनाते है.उस दिन मै सुबह -सुबह समाचार पत्र पढ़ रहा था. समाचार पत्र में शिक्षक दिवस के समाचार सुर्ख़ियों में थे. एक समाचार था, शिक्षक दिवस शिक्षकों का सम्मान होगा,दूसरा समाचार था,दो शिक्षकों पर लटकी निलंबन की तलवार, तीसरा समाचार था,देश में बारह लाख शिक्षकों की कमी, चौथा, म.प्र.के शिवपुरी जिले के बैराड़ थाना अंतर्गत खरई डाबर गाँव में वेतन न मिलने से दो शिक्षकों ने आत्महत्या की,... आदि यह सब पढ़कर मेरा दिमाग भन्नाया कि ऐसा क्यों हो रहा है? कहीं मै पीपली लाइव तो नहीं देख रहा!समाचारों में एक समाचार सकारात्मक था,बाकि के सब नकारात्मक थे. कहीं हमारी शिक्षा पद्धति नकारात्मक दिशा में तो नहीं जा रही है?
वास्तव में शिक्षक का मूल उद्देश्य शिक्षा देना है न की अर्थार्जन करना,परन्तु बदलते परिवेश में शिक्षक को भी अपना परिवार चलाना है.यदि उसकी मूलभूत सुविधाओं का ध्यान नहीं रखा जाय  तो शिक्षक की शिक्षण पद्धति में असर तो पड़ेगा ही.कहते है "भूखे पेट भजन न होई गोपाला ." वैसे ही पूरी पगार न मिलने और अपना कार्य करने के लिए शिक्षकों को अफसरों के चक्कर काटने पड़ते है, आवश्यकता पड़ने पर चढ़ोतरी भी चढ़ानी पड़ती है, इसके अतिरिक्त अनेकों ऐसे कार्य है,मसलन टीकाकरण, जनगणना, पल्स पोलिओ दवा पिलाना, चुनाव, मतगणना... आदि तो ऐसे हम उनसे क्या अपेक्षा रख सकते है.आजकल अधिकांश शिक्षक ऐसे है जिन्हें अपने कार्य से संतोष नहीं है, उनका  मन हीन भावना से ग्रस्त रहता है, वे अपने को जीवन भर कोसते रहते है, वे किसी मजबूरी के तहत शिक्षक के पेशे को अपनाये रहते है.ऐसे में उनसे गुणवत्ता की उम्मीद करना बेमानी होगी, आखिरकार वे भी इन्सान है. इन सब विसंगतियों के बावज़ूद "शिक्षक" यह पद सम्माननीय है.वह समाज में दिखाई देने वाले कंगूरों के नीव का पत्थर है. वह एक कुम्हार की तरह है जो अपने विद्यार्थीयों को एक आकार प्रदान करता है,फिर चाहे वो सहायक शिक्षक हो, चाहे प्राध्यापक, चाहे संविदा शिक्षक या फिर गुरूजी, ये सभी चरित्र निर्माण की भूमिका अदा करते है, जो समाज के उत्थान या पतन का करक बनता है.. आधुनिकता के चलते शिक्षक दिवस मनाने का तरीका बदल गया है,जैसे वो ग्रीटिंग देकर हो या पुष्प गुच्छ देकर पर उसका मूल आधार तो शिक्षकों का सम्मान करना है,और उनके पद को नमन करना है.कहते है न,चित्रपट समाज का आइना होता है तो फिल्मवालों ने भी शिक्षक के विभिन्न रूपों को अपने परदे पर उतारा है. कुछ फिल्मो में उसे गंभीर,अनुशासनप्रिय और कहीं मसखरा दिखया है.मुझे कुछ फिल्मे याद है जैसे जाग्रति,परिचय, चुपके-चुपके, कस्मे-वादे,मोहब्बतें, मेजरसाब,ब्लेक,बुलंदी,तारे जमीं पर,थ्री इडियट्स.. आदि. इसके अलावा १९७२ में अनंत माने की मार्मिक कहानी को वी. शांताराम ने निर्देशित किया,शंकर पाटिल के संवाद और जगदीश खेबुडकर के गीतों को राम कदम ने संगीत में ढाला है,मराठी का बड़ा ही प्रसिद्ध चित्रपट पिंजरा है,जिसमे श्रीराम लागू ने एक आदर्शवादी शिक्षक की तो संध्या ने तमाशबीन और नीलु फुले ने खलनायक की भूमिका अदा की है.आदर्शवादी शिक्षक गाँव में तमाशा आने का विरोध करता है और बच्चों,बड़ों को तमाशा देखने से मना करता है. तमाशबीन संध्या उसे खुली चुनौती देती है कि वह उससे डपली बजवा कर रहेगी.परिस्थितियां ऐसी बनती है कि आदर्शवादी शिक्षक तमाशबीन महिला के चक्कर आ जाता है.मन ही मन उसे आत्मग्लानी होती है पर वह मजबूर होता है. गाँव में एक हत्या होती है. परिस्थितिवश शिक्षक अपने कपडे लाश को और लाश के कपडे खुद पहन लेता है और तमाशबीनो की टोली में शामिल हो जाता है.गाँव में में यह प्रचारित हो जाता है कि शिक्षक मर गया. उसके आदर्शवादिता के कारण गाँव में उसकी मूर्ती स्थापित कर उसे सम्मानित किया जाता है. उधर शिक्षक तमाशबीनो की टोली में डपली बजाता है. खाने के समय एक कुत्ता शिक्षक के बाजू में आकर बैठता है और रोटी खाता है.शिक्षक पानी पानी हो जाता है. बाद में  पुलिस आकर परिवर्तित शिक्षक को शिक्षक की हत्या के जुर्म में गिरफ्तार करती है.कहने का अर्थ यह है की शिक्षक के आदर्श  मरणोपरांत भी  जीवित रहते है.हाथ की जैसे पांचो उँगलियाँ बराबर नहीं होती वैसे सबसे एक जैसा होने को उम्मीद रखना भी बेमानी है.हमारे यहाँ शिक्षक अर्थात गुरु अर्थात अंधकार को दूर कर प्रकाशवान बनाने वाला व्यक्तित्व है. इसलिए कहा गया है - " गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके लगौ पाय, बलिहारी गुरु आपनी गोविन्द दियो बताय. " परन्तु आजकल के विद्यार्थी, लडके  अपने शिक्षक से इस दोहे को इस प्रकार से कहते और उम्मीद रखते है " गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके लगौ पाय, बलिहारी गुरु आपनी नंबर दियो बढ़ाय."   

Saturday, September 4, 2010

आखिर कब तक.....: पुस्तक के बारे में...

आखिर कब तक.....: पुस्तक के बारे में...: " प्रातःकाल की बेला थी,प्राची से रश्मि का उदय,सुबह-सुबह मैं बालकनी में बैठा भुवन भास्कर को निहार रहा था कि एकएक मुझे मेरे चहेत..."

रवि की रश्मियाँ: जिज्ञासा

रवि की रश्मियाँ: जिज्ञासा: "पतझड़ की एक संध्या में, बीहड़ में से एक मुसाफिर चला जा रहा था, पैरों तले रोंदते हुए पत्तों को, चरमराते हुए पत्ते ने प्रश्न पूछा, कौ..."

Monday, August 23, 2010

राखी का अनुपम उपहार

बचपन की बात है, अक्सर मै अपने दादाजी से कहानियां सुनाने को कहा करता था.वर्षा रितु, सावन का महिना था. चारों ओर हरियाली,पानी की फुहार गर्मी की तपिश को कम कर रही थी.वैसे भी श्रावण मास का भारतीय संस्कृति में सामाजिक,धार्मिक आध्यात्मिक एवं रूप से एक अलग महत्व है.मै,दादाजी के साथ बैठा था कि एकाएक घंटी बजी. मी दौड़ते-दौड़ते गया, दरवाजा खोला,तो देखा तो एक पंडितजी हाथ में कुछ सूत्र लिए थे.उन्होंने दादाजी को पूछा.मैंने दादाजी को बुलाया, पंडित जी ने एक मंत्र पढ़ा और गहरे गुलाबी कलर का रेशमी धागा उनकी कलाई पर बाँधा, फिर उन्होंने वही मंत्र पढ़ा और मेरे कलाई पर भी वैसा ही धागा बांध दिया.दादाजी ने उन्हें नेग दिया, मिठाई दी,फिर वो चले गए.मैंने दादाजी से पूछा, पंडितजी ने धागा क्यों बांधा? दादाजी ने बताया आज राखी पूर्णिमा है. आज के दिन बहने अपने भाइयों की कलाई पर राखी बांधती है, बदले में भाई अपने बहन की रक्षा करने का वचन देता है और उसे नेग देता, मिठाई खिलाता है. यह भाई-बहन के अटूट प्यार का त्यौहार है.पर दादाजी पंडित जी ने आपको और मुझको क्यों धागा बांधा? दादाजी ने कहा यह रक्षा सूत्र है.पंडित जी ने "येनबद्धो बलि राजा दानवेंद्रों महाबलः,तेन त्वां प्रतिबंधानामी रक्षे मा चल मा चल." यह मंत्र पढ़कर बांधा है.यह मंत्र रोगों का नाशक है और अशुभों को नष्ट करने वाला है. पुराणों के अनुसार देवों के गुरु ब्रहस्पति से मंत्रित रक्षासूत्र प्राप्त कर इन्द्राणी ने राजा इन्द्र की जीत के लिए और देवो की रक्षा हेतु इसे अपनाया था और दानवो से युद्ध में देवो की विजय हुई.इसी प्रकार भगवान कृष्ण ने जब सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया थातो उनके हाथ में चोट लग गई और रक्त निकालने लगा तब  द्रौपदी ने तुरंत अपनी साड़ी का किनाराफाड़कर उनके हाथ में बांध दिया.उस समय भगवान श्रीकृष्ण द्वारा उनकी रक्षा हेतु वचन दिया था.भगवान श्रीकृष्ण ने दुशासन द्वारा चीरहरण के समय द्रौपदी की लाज बचाई.यह राखी का महत्व है.यह सिर्फ धागा नहीं है. उसके पीछे की पवित्र भावनाए है, समझे.
समय के साथ त्योहारों को मानाने का तरीका भी बदल रहा है. जहाँ पहले रेशमी धागा हुआ करता था, घर- घर में बहाने अपने हाथ से राखी बनाया कराती थी वहां अब बाज़ारों में चीन से आई हुई सस्ती राखियाँ खूब उपलब्ध है, जो एक चिंता का विषय है कि चीन की घुसपैठ कितनी बढ़ती जा रही है.पहले उसने खिलौनों के जरिये हमारे बच्चों पर, सस्ती झालर, बल्ब,फ्रेंडशिप बेल्ट,वेलेंटाइन गिफ्ट और अन्य सामानों के जरिये हमारे घरों पर और अब राखी के जरिये हमारी बहनों पर अपना शिकंजा फैला रहा है और हम सस्ते के नाम पर उसे खरीद रहे है. कंही चीन की मंशा  अंग्रेजो की तरह व्यापार के जरिये भारत पर कब्ज़ा करने की तो नहीं! हमें सावधान रहने की जरूरत है.रक्षा बंधन का त्यौहार भाई-बहन के स्नेह का प्रतीक है.आज इन्ही परम्पराओं के चलते हमारी संकृति जीवित है. हाँ समय के साथ इसमे कुछ बदलाव जरूर महसूस किये जा रहे है.मुझे ऐसा लगता है कि,विदेशों से आयातित फ्रेंडशिप डे,वेलेंटाइन डे,मदर्स डे,फादर्स डे..आदि जरूर कब्ज़ा ज़माने का प्रयत्न कर रहे है, कही ऐसा न हो कि आगे आने वाले समय में रक्षा-बंधन "ब्रो-सिस डे" के रूप में न जाना जाय !शायद यही कारण है कि ऑनर किलिंग जैसी समस्याएं बढ़ रही है, परन्तु इन सब के बावजूद राखी का यह त्यौहार हमें आपस में जोड़े रखने का एक सशक्त माध्यम है. भाई-बहन एक ही वट वृक्ष की दो जटायें (लटकती हुई जड़े)है जो अलग-अलग होते हुए भी एक ही है.भाई-बहनों को राखी बांधने के उपलक्ष्य में उपहार देते है.आज हमारी बहने इतनी सक्षम है कि वे भी अपने भाइयों को बड़े से बड़ा उपहार दे सकती है,परन्तु उपहार से ज्यादा महत्व एक दूसरे के प्रति स्नेह है. वस्तुओं का उपहार समय के साथ पुराना हो सकता है, नष्ट हो सकता है, ख़राब हो सकता है.मेरे विचार में, मै अपने सब भाइयों से अनुरोध करूंगा कि वे इस राखी पर क्या हर राखी पर अपनी बहनों को ऐसा उपहार दे जो सालों साल याद रहे. जो पर्यावरण को हरा-भरा और सुरक्षित भी रखे, और आने पीढ़ी को स्वच्छ, प्रदूषण रहित वातावरण दे सके . जिसकी छाया से सभी लाभान्वित हो सके और जिसके फूलों से आसपास का सारा वातावरण महके. वह सुन्दर और अनोखे  आकर्षक उपहार एक हरे-भरे  छोटे पौधे से बेहतर कुछ नहीं हो सकता.वह भाई-बहन के पवित्र रिश्ते को और मजबूती प्रदान करेगा. तो सभी भाई अपने बहनों को एक पौधा भेंट करे तथा दोनों मिलकर उसे इस शुभ अवसर पर लगाकर सभी को उसकी छाया से लाभान्वित करने का प्रयास करे. शुभ रक्षा बंधन. नितिन देसाई "पर्यावरण मित्र"